सरकार और सुरक्षा बलों का कहर: उजाड़ दिया गया लोहा गांव और भगा दिए गए गांव के लोग!

 

कल हम लोहा गांव के आदिवासियों से मिले. सोनी सोरी को गांव वालों ने मिलने के लिए बुलाया था. इन गांव वालों पर सरकारी सुरक्षा बल के सिपाहियों ने हमला किया है. बुजुर्ग व्यक्ति को पीटा है. घरों में घुस कर आदिवासियों का पैसा, खेत में लगी हुई मकई, घर में रखे हुए अंडे और पेड़ों पर लगे हुए फल लूटे हैं.

यह गांव बैलाडीला की पहाड़ी में बसा हुआ है. गांव की ज़मीन लोहा खोदने के लिए ली गई. तब यह वादा किया गया कि कम्पनी इस गांव के विकास की जिम्मेदारी उठायेगी. इस गांव को सरकारी कम्पनी एनएमडीसी ने साठ के दशक में ही विकास करने के लिए गोद ले लिया था. लेकिन विकास करने की बजाय कम्पनी ने लोहा खोद कर खराब मिट्टी गांव की ऊंचाई पर वाली जगह पर डम्प करनी शुरू कर दी. इससे वह मिट्टी बरसात में बह कर गांव की नदी और खेतों में फैल गई. नदी गाद से भर गई. इस गाद में फंस कर पशु मरते गये. यह गाद खेतों में भर गई. खेती बर्बाद हो गई. पेड़ बर्बाद हो गये. गांव वालों को इमली-महुआ जैसे वनोपज मिलने भी बंद हो गए. धीरे-धीरे आदिवासी भूख से मरने लगे. गांव में डेढ़ सौ घर थे वह घटते-घटते पन्द्रह बचे हैं. 

पिछले साल इस गांव के दो भाई जंगल में बांस लेने जा रहे थे. वह कम्पनी की बहाई हुई नदी की गाद में फंस गए और मर गये. कम्पनी ने या सरकार ने उन्हें कोई मुआवजा नहीं दिया. उलटे चौदह नवम्बर को नेहरु जी के जन्मदिन पर सरकारी सुरक्षा बलों ने गांव में जाकर मारे गये आदिवासियों की विधवा पत्नी और मां का कम्बल नगद पैसा और मकई लूट ली. कितने आश्चर्य की बात है कि जिन नेहरु जी ने इस उद्योग को आधुनिक भारत के मन्दिर कहा था उनके जन्मदिन पर निर्दोष आदिवासियों के घर में घुस कर सरकारी बल लूटपाट करके आये हैं.

हद तो यह है कि एनएमडीसी सैकड़ों करोड़ रुपया पेरिफेरी डेवलपमेंट के नाम पर खर्च करने का दावा करती है लेकिन उसकी नाक के नीचे बसे खुद के गोद लिए इस गांव के लोगों के पास आज़ादी के सत्तर साल के बाद भी ना राशन कार्ड है ना आधार कार्ड है. इस गांव तक ना सड़क है ना जाने का कोई साधन. चौदह नवम्बर से अट्ठारह नवम्बर तक डीआरजी के सिपाहियों ने इस गांव के लोगों को पीटा उनकी पशु घर में तथा फसल को ढकने में इस्तेमाल की जाने वाली तिरपाल जला दी.

एक बुज़ुर्ग आदिवासी ने बताया कि उनके पांव और हाथ के नीचे तथा ऊपर पत्थर रखा गया और फिर सिपाहियों ने एक बड़े पत्थर से उसे ठोका. वह घायल आदिवासी बुज़ुर्ग भी हमसे मिलने आये थे. आदिवासियों ने बताया कि सिपाही कह रहे थे कि यह गांव छोड़ कर चले जाओ नहीं तो दोबारा आकर मारेंगे. आदिवासी कह रहे थे हम अपना गांव छोड़ कर क्यों जाएं? 

ग्रामीणों ने बताया कि उनके दो रेडियो पानी में फेंक दिए गए 1300 रुपए की हाथ की घड़ी छीन ली गई. गांव की मितानिन ने बताया कि सरकार द्वारा मितानिन को दी गई दवाइयां भी सुरक्षा बल के सिपाहियों द्वारा जला दी गई.

हम लोगों ने एसडीएम साहब को सूचना दी. उन्होंने बचेली के तहसीलदार और किरंदुल के थानेदार को आदिवासियों से मिलने भेजा. गांव वालों से अपनी आपबीती सुनाई. तहसीलदार साहब ने पंचनामा तैयार किया. ग्रामीणों ने एक दरख्वास्त लिख कर मामले की जानकारी जिला कलेक्टर को भेजी है तथा जांच की मांग की है. यह घटना पूरे देश के सामने महत्वपूर्ण सवाल खड़े करती है. जिसका जवाब हम सब को मिलकर खोजना ही पड़ेगा. क्या इस देश में नागरिक होने के नाते हमारा कोई अधिकार या गरिमा है या नहीं है? क्या सरकारी सिपाही किसी कम्पनी या पूंजीपति के लिए लोगों को उनके पारम्परिक आवास तथा जीने के संसाधनों से मार-पीट कर भगा कर अलग कर सकते हैं?

क्या इस देश की अदालतों का काम नहीं है कि वह लोगों के मानव अधिकार उनके संवैधानिक अधिकारों और जीवन की रक्षा करें? हमें इन सवालों के जवाब जल्द से जल्द खोज लेने चाहिये. वरना होगा यह कि जब मुसलमानों के घरों पर बुलडोजर चलाया जाएगा तो सब खामोश रहेंगे. जब आदिवासी को पीट-पीट कर घर और ज़मीन से बेदखल कर दिया जाएगा. तब सब चुप रहेंगे. दलितों को पीटा जायेगा तब सब चुप रहेंगे. अंत में जब आपका नम्बर आएगा तब भी सब चुप रहेंगे. भारत के लोगों को नागरिक बन कर सोचने का समय आ चुका है.

(बैलाडीला के लोहा गांव से दौरा कर लौटने के बाद सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार की रिपोर्ट।)

साभार – जनचौक